Thursday, October 9, 2025

सपा-कांग्रेस पर हमला, योगी की सराहना, Mayawati ने Lucknow Rally में दिये भाषण से राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया और BSP का "रीसेट बटन" दबा दिया

उत्तर प्रदेश की राजनीति आज फिर मायावती के तीखे तेवरों से गूंज उठी। कांशीराम के 19वें परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित बसपा रैली सिर्फ श्रद्धांजलि का मंच नहीं थी बल्कि यह एक राजनीतिक घोषणा-पत्र भी था।

मायावती ने इस अवसर को समाजवादी पार्टी पर करारा प्रहार करने, कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने और अप्रत्याशित रूप से भाजपा की आंशिक सराहना करने के लिए इस्तेमाल किया। बसपा मुखिया ने अपने भाषण में जिस तीखे अंदाज़ में सपा को "दोगली राजनीति" का प्रतीक बताया, वह स्पष्ट संकेत देता है कि मायावती आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले 'सामाजिक सम्मान बनाम दिखावटी राजनीति' के नैरेटिव को फिर से केंद्र में लाना चाहती हैं।

मायावती ने सपा पर आरोप लगाया कि जब सत्ता में होती है तो दलित महापुरुषों की उपेक्षा करती है और सत्ता से बाहर आते ही उनके नाम पर संगोष्ठियाँ और श्रद्धांजलि कार्यक्रम आयोजित करती है। उन्होंने अखिलेश यादव पर सीधा निशाना साधते हुए कहा कि जब उनकी सरकार आई, तो उसने कांशीराम नगर का नाम बदल दिया, जबकि बसपा शासन ने इसे दलित अस्मिता का प्रतीक बनाकर स्थापित किया था। देखा जाये तो यह हमला सामाजिक प्रतिनिधित्व की सियासत पर भी था। मायावती ने सपा के "पीडीए" (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) नारे को "राजनीतिक पाखंड" बताया और कहा कि सपा इन तबकों को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती है। राजनीतिक रूप से, यह बयान मायावती के पुराने वोटबैंक विशेषकर जाटव, पासी और वाल्मीकि समुदाय को यह संदेश देता है कि बसपा ही उनकी असली राजनीतिक आवाज़ है, न कि सपा जैसी "अवसरवादी" पार्टियाँ।

मायावती ने कांग्रेस को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने बाबा साहब आंबेडकर के प्रति कांग्रेस की "ऐतिहासिक उपेक्षा" की याद दिलाते हुए कहा कि न लोकसभा भेजा, न जीवनकाल में भारत रत्न दिया। उन्होंने यह भी जोड़ा कि मंडल आयोग की रिपोर्ट बसपा के प्रयासों से ही लागू हो सकी थी। यह आक्रमण दोहरे उद्देश्य वाला था। एक तो कांग्रेस को "दलित विरोधी" ठहराना, ताकि सपा-कांग्रेस गठबंधन की संभावनाएँ कमजोर दिखें। दूसरा बसपा को सामाजिक न्याय की असली वाहक के रूप में पुनः प्रस्तुत करना।

मायावती के भाषण का सबसे दिलचस्प हिस्सा तब आया जब मायावती ने भाजपा सरकार की सराहना की। मायावती ने कहा, ''बसपा राज्य सरकार की भी बहुत-बहुत आभारी है क्योंकि इस स्थल को देखने वाले लोगों के टिकटों का एकत्र हुआ पैसा पूर्व की सपा सरकार की तरह वर्तमान भाजपा की राज्य सरकार ने दबा कर नहीं रखा है बल्कि पार्टी के आग्रह करने पर इस स्मारक की मरम्मत करने पर पूरा खर्च किया है।'' बसपा प्रमुख ने कहा कि उन्होंने वर्ष 2007 में अपनी सरकार के शासनकाल में व्यवस्था की थी कि कांशीराम के सम्मान में बनवाये गये स्मारक स्थल के लिये टिकट लगाया जाएगा और उससे मिलने वाले धन को राजधानी लखनऊ में बनवाये गये स्मारकों और उद्यानों के रखरखाव पर खर्च किया जाएगा। उन्होंने कहा कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने स्मारकों की मरम्मत के लिए टिकट से मिली रकम का सही उपयोग किया, जबकि सपा सरकार ने उसे "दबा कर रखा था।" यह बयान राजनीतिक रूप से बेहद अहम है। यह मायावती की 'सॉफ्ट पॉलिटिकल बैलेंसिंग' का हिस्सा है- जहाँ वह भाजपा के साथ सीधी भिड़ंत से बचते हुए, विपक्षी गठबंधनों से दूरी बनाए रखना चाहती हैं। भाजपा के लिए यह संकेत सुकूनदायक है कि बसपा 2027 के चुनाव में तीसरा मोर्चा बनकर विपक्षी वोटों को बाँट सकती है।

देखा जाये तो कांशीराम की पुण्यतिथि का मंच, मायावती के लिए केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि राजनीतिक पुनर्स्थापना का अवसर था। 2022 के चुनावों में बसपा को मुश्किल से 12% वोट मिले थे। यह उसके अपने इतिहास का सबसे निचला स्तर था। अब जब सपा पीडीए के ज़रिये पिछड़े-दलित गठबंधन की राजनीति साधने में लगी है, मायावती का यह बयान एक काउंटर-नैरेटिव है कि "हमारे महापुरुषों की विरासत को अवसरवादी राजनीति से बचाना ही सच्चा सम्मान है।" मायावती का यह प्रयास अपने परंपरागत दलित आधार को फिर से एकजुट करने और उसे सपा से दूर रखने का है। साथ ही, भाजपा के साथ प्रत्यक्ष टकराव से बचकर वह राज्य में "राजनैतिक प्रासंगिकता" बनाए रखना चाहती हैं।

मायावती के भाषण से उत्तर प्रदेश की राजनीति पर पड़ने वाले असर को देखें तो बसपा मुखिया का यह हमला विशेष रूप से पश्चिमी और मध्य यूपी में सपा के दलित वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए है। यदि बसपा अपने पारंपरिक मतदाताओं को भावनात्मक रूप से फिर से जोड़ पाती है, तो सपा को नुकसान तय है। बसपा की आक्रामकता सपा के खिलाफ भाजपा के लिए "विपक्षी मतों का बिखराव" सुनिश्चित कर सकती है। योगी सरकार पर नरम टिप्पणी से भाजपा को यह संकेत भी जाता है कि बसपा पूर्ण विरोधी नहीं है। साथ ही बसपा का कांग्रेस विरोधी रुख विपक्षी एकता के समीकरणों को और जटिल बनाएगा। मायावती का संदेश स्पष्ट है- "दलित एजेंडा" पर बसपा किसी गठबंधन में अधीनस्थ भूमिका स्वीकार नहीं करेगी।

इसके अलावा, यदि मायावती अपनी "संगठित लेकिन शांत" राजनीतिक शैली को जमीनी अभियान में बदल पाती हैं, तो यह रैली बसपा की पुनर्प्रविष्टि की शुरुआत मानी जाएगी। देखा जाये तो कांशीराम की पुण्यतिथि के बहाने मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को नया कोण दे दिया है। उनका संदेश साफ़ है- "दलित राजनीति की असली आवाज़ वही होगी, जो न सत्ता के लालच में झुके और न किसी गठबंधन में घुले।" राजनीतिक तापमान बढ़ाने की दिशा में यह रैली बसपा के लिए "रीसेट बटन" साबित हो सकती है। और यदि मायावती इस लय को अगले चुनाव तक बनाए रखती हैं, तो उत्तर प्रदेश की सत्ता का गणित फिर एक बार नई शक्ल ले सकता है।

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